पहाड़ के ढलान पर क्रिकेट खेलते बच्चे

0
43

राजेश पांडेय। रुद्रप्रयाग

रुद्रप्रयाग में एक गांव खड़पतिया से सटे पहाड़ पर जाने का मौका मिला, जो शुरुआत में जितना कठिन था, बाद में उतना ही मन को खुश करने वाला भी। समय था, शाम करीब चार बजे का। मैं हांफते हुए चढ़ रहा था और बार-बार सोच रहा था कि क्या पहुंच पाऊंगा, वहां जहां मुझे ले जाया जा रहा है।

मैंने दूर से कुछ बच्चों को पहाड़ पर बनाए रास्ते पर कदम बढ़ाते हुए देखा। ये बच्चे पास के ही गांव में रहते हैं। इनमें से एक बच्चे के पास बैट था और एक के पास विकेट। इनसे आगे गाय, बैल चल रहे थे। यह उनका रोजाना का काम है, ऐसी मुझे जानकारी मिली। आखिरकार, हम पहुंच गए उस मैदान में जो, हराभरा है और उसके पास ही एक कुंड है, जिसमें बरसात का पानी इकट्ठा है। घास के मैदान के बीच पिच बनी है, जिस पर हमसे पहले पहुंचे बच्चों ने क्रिकेट खेलने की तैयारी कर ली थी। विकेट गाड़े जा चुके थे और खुद से बनाया बैट लेकर बैट्समैन मैदान में डटा था। दूसरी तरफ बॉलर ने भी मोर्चा संभाला था।

पिच के दाई ओर ढलान है। बाईं तरफ व पीछे ऊंचाई तथा सामने समतल। नियम भी तय हैं, ज्यादा तेज शॉट नहीं लगाना। ढलान की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं। खिलाड़ियों की संख्या भी कम है। मैच तो नहीं खेला जा सकता, इसलिए हर किसी साथी को, बतौर बैट्समैन मात्र छह गेंद खेलने का मौका मिलेगा। एक ओवर के बीच में किसी भी गेंद पर आउट होने का मतलब है आउट।

खिलाड़ियों को गेंद लाने के लिए ढलान या फिर ऊंचाई में बंटे मैदान में पूरी ताकत से दौड़ लगानी पड़ रही है। उनका मैदान शहर की तरह समतल नहीं है, यहां क्रिकेट आसान नहीं है और इसके नियमों में बदलाव करना आवश्यक हो जाता है। मैं उनकी सहनशीलता और शारीरिक क्षमताओं को समझता हूं। ये बच्चे हैं और सुबह, शाम, दिन-रात पहाड़ को देखने, पहाड़ पर चढ़ने, पहाड़ से उतरने, पहाड़ जितनी चुनौतियों का सामना करते-करते इनकी क्षमताएं बढ़ गई हैं और इरादे भी बुलंद हैं। ये स्कूल जाने के लिए प्रतिदिन चार से आठ, कहीं-कहीं 16 किमी. पैदल चलते हैं, वो भी ऊंचाई और ढलान वाले कच्चे-पक्के रास्तों पर।

मैं अपनी बात बताऊं, तो शहर के मैदान में भी क्रिकेट मेरे बस की बात कभी नहीं रहा। मैं बचपन में क्रिकेट खेलता था और मेरे साथी इस खेल में मुझ पर विश्वास नहीं करते थे। मैं न तो अच्छा बॉलर था और न ही बैट्समैन और फील्डिंग में भी कुछ खास नहीं कर पाता था। इसलिए इस खेल से बाहर हो गया और इसमें मेरी रूचि कभी नहीं रही। पर, मैं मैदान में खुद को तपाने और मेहनत करने वाले खिलाड़ियों के लिए सम्मान रखता हूं। चाहे वो किसी गली, मोहल्ला, शहर या गांव में ही क्यों न खेल रहे हों। मैंने शारीरिक श्रम ज्यादा नहीं किया। फास्ट होती लाइफ में जंकफूड का इस्तेमाल शारीरिक क्षमताओं पर असर डालने वाला रहा। बिगड़ती लाइफ स्टाइल वाले रोग शरीर के आजीवन साथी हो गए। अपनी बात बाद में, कभी और, पहले बच्चों से बातें करते हैं।

पहाड़ के गांवों में बच्चे अभी काफी हद तक जंकफूड से दूर हैं। यहां प्राकृतिक रूप से वो सबकुछ खाने के लिए आपको अपने आसपास मिल जाएगा, जिनका स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्व है। पौष्टिकता से भरपूर सब्जियां भी यहां खूब मिलेंगी। पहाड़ के खेतों में जैविक ही उगता है। यहां न तो प्रदूषित नदियों के पानी से सिंचाई होती है और न ही खेतों में कैमिकल डालकर फसल बढ़ाने का कोई उपाय दिखता है। पशुपालन से दूध मिलता है और खेतों के लिए खाद भी।

मैंने बच्चों से पूछा, आप कहां रहते हैं। जवाब मिला, पास के ही उस गांव में, जहां एक दिन आप भी आए थे। क्या आप रोजाना शाम को यहां आते हो। जवाब था, गाय बैल चराने के लिए आते हैं और यहां क्रिकेट खेलते हैं। यहां अभी कुछ देर में, और भी बच्चे आने वाले हैं। हम मैच खेलते हैं। हमारी टीमें बनी हैं।

थोड़ी ही देर में बच्चों का एक दल मैदान की ओर आता दिखा। बच्चे उत्साहित थे, आज का मैच खेलने के लिए। वो बहुत खुश थे। इनमें से कुछ बच्चे मुझे पहचान रहे थे, इसलिए उन्होंने नमस्ते की। मुझे बहुत अच्छा लगा, क्योंकि यहां नये दोस्त जो बन रहे थे। वो मुझे ‘रेडियो वाले अंकल’ के नाम से जानते हैं। इनमें से कुछ बच्चे गाना गाते हैं, चुटकुले सुनाते हैं। पर, उस समय वो पूरी तरह तैयार नहीं थे, इसलिए बाद में फिर कभी गाना सुनाने की बात पर सहमत हो गए।

हमारे साथी सोमेश, जो बंगलुरू के क्राइस्ट कॉलेज में मल्टीमीडिया में पोस्टग्रेजुएशन के छात्र हैं, ने पहाड़ पर क्रिकेट के फोटोग्राफ क्लिक किए। सोमेश राजस्थान के बाड़मेर जिला के रहने वाले हैं, उनको उत्तराखंड के पहाड़ बहुत लुभा रहे थे। कहते हैं, मैं यहां पहुंचकर बहुत खुश हूं। यहां पहाड़ पर हरेभरे मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलता देखना, मेरे लिए शानदार अनुभव है।

हमने बच्चों को एक कहानी सुनाई, जो विविधता का सम्मान करने का संदेश देती है। जो यह बताती है कि इस दुनिया में जो भी कुछ है, वो अपने एक खास तरह के महत्व के साथ है। सतरंगी का अभिमान शीर्षक वाली कहानी में सात रंगों वाली एक मछली स्वयं को अपने साथियों से अलग महसूस करने लगी थी। उसमें अभिमान आ गया था और अपने साथियों से उसका व्यवहार दिन पर दिन खराब होता जा रहा था। बाद में, साथी मछलियों ने एक योजना बनाकर सतरंगी को यह महसूस करा दिया कि उनकी वजह से ही उसका आकर्षण है। हमें अपने साथियों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए और विविधता का सम्मान करना चाहिए। विविधता चाहे जैव विविधता हो या फिर सांस्कृतिक हो या फिर भाषा बोली की विविधता हो, हमें सम्मान करना चाहिए। विविधता में एकता होती है, जो हमें मजबूत और सक्षम बनाती है।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here